छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से ४० किलोमीटर की दुरी पर स्थितराजिम को देवालयों की नगरी और छ.ग.के प्रयाग के नाम से प्रसिद्धि है यहाँ तिन नदियों का संगम महानदी पैरी नदी और सोंडू नदी का संगम राजिम में है यहाँ की बहुतायत मंदिर छठवी सातवी शताब्दी के हैं |
_ रायपुर से चालीस किलोमीटर की दुरी पर स्थित राजिम में भगवान राजीव लोचन का मंदिर अपने प्राचीन गौरव एवं सांस्कृतिक महत्त्व के लिए प्रसिद्द है | यह तीर्थ स्थल के साथ ही रमणीक स्थल है | यह मंदिरों की नगरी है, जो प्राचीन अवशेषों के भंडार से परिपूर्ण है | त्रिवेणी संगम के भांति यहाँ महानदी, सोंडू एवं पैरी नदियों के पवित्र संगम स्थल है, जिसके कारण यहाँ सन २००४ से माघ पूर्णिमा को कुम्भ मेला का आयोजन होते आ रहा है | इस संगम स्थल पर कुलेश्वर महादेव जी का मंदिर अद्वितीय शोभा के साथ अपनी कीर्तिपताका फहरा रहा है | पैरी नदी के किनारे पर स्थित भगवान राजीव लोचन के मंदिर तथा मध्य में निर्मित कुलेश्वर महादेव जी का मंदिर छत्तीसगढ़ के प्राचीनतम मंदिरों में से एक है |
कुलेश्वर मंदिर के ठीक सामने लोमेश ऋषि का आश्रम है | लोमेश ऋषि श्रृंगी ऋषि के गुरु माने जाते हैं | वनवास को प्रस्थान करते समय भगवान राम लक्ष्मण और सीता ने कुछ समय के लिए विश्राम किया था | लोमेश ऋषि के दर्शन से वे लाभान्वित हुवे थे |
यहाँ सीताजी ने अपने हाथ से वालू द्वारा अपने आराध्य भगवान शिवजी की प्रतिमा { शिवलिंग} बनाकर पूजा की थी | उत्पलेश्वर {कुलेश्वर} मंदिर की निर्माण वधी यहीं से मानी जाती है
_ आइये सबसे पहले जानते हैं इसका नाम राजिम कैसे पड़ा जनश्रुति से ज्ञात होता है की राजिम नमक एक तेलिन ( तेल बेचने वाली) के नाम पर इस स्थान और मंदिर का नाम पड़ा है | किवदंती है की वह जब तेल बेचने जा रही थी तो रह में पड़े पत्थर से ठोकर खाकर गिर पड़ी | फलस्वरूप उसके सर पर रखे टोकरी में रखे पात्र के लुढ़क जाने से तेल जमीन में बहकर फ़ैल गया | घरवालों के संभावित डांट डपट से उनका ह्रदय व्यथित हो उठा | लुढके हुवे तेल पत्र को उसने उसे उसी पत्थर पर रख दिया | भगवान से रो रोकर वह प्रार्थना करने लगी की पति और सास की दंड से उसे उसकी रक्षा करे कुछ समयोपरांत वह घर लौटते वक्त खली तेल पत्र को उठती है तो देखती है की वह तेल्पत्र लबालब तेल से भरा है | वह इस प्रकार अकस्मात् घटित करामत से काफी आश्चर्य में पड़ जाती है तथा इसे भगवान की कृपा समझकर घर लौटती है | रस्ते में वह घुमघुम कर ग्राहकों को तेल बेचती रही पर वह उस पत्र का तेल किंचित मात्र भी कम नहीं हुई | घर आकर वह अपनी सास और पति को वस्तुस्थिति से अवगत कराती है | घटना का विवरण सुनकर दोनों आश्चर्य चकित थे | सास ने प्रमाणिकता जानने हेतु दुसरे दिन अपने बहु के साथ चलकर इसका अवलोकन किया घटना की सत्यता अपने पुत्र को दी पश्चात् उन तीनो ने रात्रि में उस प्रस्तर खंड को उठाकर घर लाने का निश्चय किया | दुसरे दिन शिलाखंड उखाड़े जाते समय उसी पत्थर के निचे चतुर्भुज भगवान विष्णु का श्याम वर्ण की मूर्ति पाकर उसके आनंद का ठिकाना नहीं रहा | वे उस मूर्ति को घर ले आये और नित्य प्रति उसकी पूजा करने लगे |
वहीँ कुछ लोगों का मानना है राजिम नाम की वह महिला राजिम जो की भगवान् विष्णु की भक्तिन थी जिसके फलस्वरूप इस क्षेत्र को उस भक्तिन महिला के नाम राजिम के नाम से जाने जाने लगा |
कुछ लोगों का मानना है की भगवान राजीव लोचन के नाम से इस क्षेत्र को राजिम के नाम से जाना जाता है |
श्री राजीव लोचन मंदिर के मंदिर के सामने ( रामेश्वर और दानेश्वर ) महादेव मंदिर के पीछे जो तेलिन मंदिर के नाम से प्रसिद्द देवालय है वह राजिम तेलिन सम्बंधित अनुश्रुति की ऐतिहासिकता को संभावित करता है |
श्री राजीवलोचन देव पर ही इस स्थान का नाम राजिम पड़ा है ऐसा मानना है गजेटियर लेखक का लेखक के मतानुसार तेलिन मंदिर के गर्भगृह में रखे सभी स्तम्भ पर उत्कीर्ण कोल्हू एवं बैल के चित्रण को व्यवसाय का प्रतिक मानते हुवे यह स्वीकार किया गया है की वह अपने परम आराध्य के सम्मुख सटी हुई थी |
सर रिचर्ड जेकिन्स ( एशियाटिक रिसर्च्ज ) के मत में यह श्री राम के समकालीन राजीवनयन नाम राजा की राजधानी थी | राजा राजीवनयन ने श्री राम के अश्वमेघ यज्ञं के श्यामवर्ण घोड़े को पकड़कर नदी के तट निवास करने वाले कर्दमक ऋषि को सौंप दिया | घोड़े की रक्षा के लिए शत्रुघ्न ने जब ऋषि से वापस लेना चाहा, तो ऋषि की क्रोधाग्नि से उसका अपनी नियुक्त सेना के साथ विनाश हो गया | तब भगवान राम को स्वयं आना पड़ा | राजा राजीवनयन ने बिना युद्ध स्वयं भगवान रामचंद्र की अधीनता स्वीकार कर लिया | भगवान राम ने आदेश दिया की वे इस स्थान पर पूजार्थ उनकी प्रतिमा स्थापित करे | उनके द्वारा प्रतिस्थापित प्रतिमा राजीवलोचन के नाम से ख्याति प्राप्त करेगी | तत्पश्चात ऋषि ने मृत सैनिकों एवं शत्रुघ्न को फिर से जीवनदान दिया | यहाँ राजीवनयन एक दिव्य प्रसाद का निर्माण कराया और भगवान (विष्णु) की की सुन्दर प्रतिमा प्रतिष्ठित कर उसकी पूजा करना प्रारंभ किया यही मूर्ति कालांतर में “राजीवलोचन” के नाम से प्रसिद्द हुई |
सतयुग में राजा रत्नाकर नाम के धर्म धुरंधर महान प्रतापी राजा थे | वे प्रजा को हर तरह से सुखी रखते थे | लोक कल्याण के लिए नाना प्रकार के यज्ञं एवं पूजा किया करते थे | एक समय इश्वर भक्तराजा रत्नाकर सोम यज्ञं का अनुष्ठान कर रहे थे | राक्षसों ने यज्ञं में विघ्न उत्पन्न किया, जिससे यज्ञं अपूर्ण रहा | राजा दुखित हो विष्णु भगवान के के अवतार राजीवलोचन का स्मरण किये और यज्ञं पूर्ण करने हेतु कठोर तप करने लगे | राजा रत्नाकर के अंतर्नाद राजीवलोचन (भगवान विष्णु)तक पहुंचा | उस वक्त भगवान विष्णु गजेन्द्रमोक्ष कर रहे थे | गजेन्द्रमोक्ष कार्य संपन्न होने के पश्चात् भगवान विष्णु ने लक्ष्मी जी से राजा रत्नाकर की अंतर्नाद समस्या का जिक्र किया | लक्ष्मी जी के अनुरोध पर उसी परिस्थिति में लक्ष्मी जी एवं राजेन्द्रमोक्ष सहित रत्नाकर यज्ञं स्थल पर उपस्थित हुवे | दर्शन देकर यज्ञं पूर्ण कराया तथा राजा को वर मांगने को कहा _राजन तुम्हारे भक्ति और कार्य से प्रसन्न हूँ | तुम अपनी इच्छानुसार वर मांगो | राजा,भगवान के शब्द सुनकर भाव _ विभोर हो प्रेमाश्रु से गदगद हो गए | उसने कहा,प्रभु आपके दया से सर्व संपन्न हूँ मेरी एक लालसा है की जिस सत्य का दर्शन मै अभी कर रहा हूँ, यही स्वरुप दर्शन मै नित्य सपरिवार करता रहूँ | भगवान राजा के प्रेम को तथास्तु कह अंतर्ध्यान हो गए | बैकुंठपुर जाकर भगवान ने विश्वकर्मा को बुलाया और आदेश दिया की मृत्यु लोक में एक राजा रत्नाकर के राज्य में कमल क्षेत्र पद्मावती पूरी नामक स्थान में एक पंचकोषी तलब है उस तलब के बिच में कमलपुष्प गिरेगा उस कमल के ऊपर ही मेरे नाम का एक मंदिर निर्माण करो | राजा रत्नाकर के निर्मित में उस मंदिर में निवास करूँगा | विश्वकर्मा कमल क्षेत्र में आकर भगवान के आदेश में रातों रात एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया |
_मंदिर की निर्माण तिथि को लेकर इतिहासकारों में मतभिन्नताएं है डा.डी.आर. भंडारकर ने इसे आठवीं शताब्दी के आसपास माना है | डा.मीरा सी. ने इसे सात सौ ई.के लगभग माना है | ए.कनिघम ने इसका समय आठवीं नौवीं शादी ई.सं.निश्चित किया है | वरिष्ठ पुरातत्ववेत्ता डा.विष्णु सिंह ठाकुर ने इसे पांचवी छठी ई.सं.का माना है |
“राजीव लोचन” मंदिर पकाई गई म्रीण ईटों का वास्तु संस्थापक में किया गया है डा.एम्.जे.दीक्षित का मत है की इस मंदिर का निर्माण कौशल के शरभ पुरीय शासकों के राज्यकाल ( पॉँच सौ ई.सं.आस पास ) में किया गया | इस अवस्था में महामंड़प स्तंभों की चार पंक्तियों पर आधारित सपाट छत वाला तथा तीनों ओर खुला हुवा था, पश्चात् पांडवों ( सोम्वंसियों ) के शासनकाल में महामंड़प की पार्श्वभित्ति स्तंभों की स्थापना की गयी तथा मनुषाकार देवी देवताओं एवं परिवारिकाओं को मूर्तियों युक्त भित्ति स्तंभों की स्थापना हुई | इसी सभा मंडप में प्रवेश के लिए दोनों पश्र्वों में बने प्रवेश द्वारों का निर्माण किया गया एवं इसमें अत्यंत अलंकृत द्वार शाखा एं बैठाई गई | गर्भगृह के त्रिशाखायुक्त प्रवेशद्वार का निर्माण भी इसी समय किया गया | अनुषांगिक देवलिकाओं के वास्तु रूपों में भी इसी कालखंड में परिवर्तन किये गए, इस प्रकार के चरों प्रकार भित्ति तथा प्रवेश द्वार का निर्माण पांडव शासकों के बाद नल शासकों (सात सौ ई.) द्वारा किया गया | राजीव लोचन मंदिर का दक्षिण पथ एवं शिविर कलचुरी शासकों की देन है |
वास्तुरूप प्रकार _ राजीव लोचन का मंदिर एक विशाल आयताकार प्रकार के मध्य में बनाया गया है | इस प्रकार विस्तार पूर्व से पश्चिम का दिशा में लगभग ४४.९७ मीटर है तथा उत्तर से दक्षिण की ओर इसका विस्तार ३१.०८ के लगभग है | यह ३.३६ मीटर ऊँची प्रकार भित्त चरों से परिवेष्ठित है | पूर्व दिशा की ओर प्रकार विस्तृत करने के उद्देश्य से प्रबंधकों द्वारा भित्ति को बद्रीनारायण मंदिर के पास से तोड़ दिया गया है | इस तरह मूल प्रकार से लगभग ६१ से.मी.ऊँचा लघु आँगन बना लिया है | इस दिशा में एक अतिरिक्त विशाल प्रवेश द्वार बना लिया गया है
पश्चिम दिशा की ओर एक मूल प्रवेशद्वार भी है | जगन्नाथ में जाने के लिए उत्तर की भित्ति पर एक अन्य द्वार है | इस प्रकार राजेश्वर, दानेश्वर,तेलिन,जगन्नाथ,राजीव लोचन मंदिर के समूह मंदिर है, परन्तु ये असग्बांध स्वतंत्र देवालय माने जाते हैं | इस अवस्था का एक मात्र कारण इन मंदिरों में एक ही परिवार के पुजारियों का जो की क्षत्रिय जाती के हैं पिता _पुत्र क्रमानुगत होता प्रतीत होता है |
प्रवेश द्वार _ स्थापत्य तथा शिल्प दोनों दृष्टियों से प्रवेश द्वार राजीव लोचन का महत्वपूर्ण अंग है | इसका निर्माण पश्चिमी प्रकार भित्त के सत्रद रूप से किया गया है | यहाँ त्रिश खयुक्त प्रवेश द्वार शुभ का संकेत है | प्रकार के सतह से लगभग १५ से.मी.ऊँचा तथा चार स्तंभों तथा चार भित्तीं पर आधारित सपाट छत वाला एक प्रकोष्ठ इस तरह बनाया गया है की उसका आधार विस्तार प्रकार के अन्दर और बाहर शेष है | इस प्रकार विशाखा वाला यह प्रवेश द्वार इस प्रकोष्ठ के बींचोबीच बैठाया गया है | प्रत्यक्षा दर्शन में ब्रम्हा प्रकोष्ठ तथा अंत: दोनों दो मध्यवर्ती स्तंभों तथा दो पर्श्वर्ती भित्ति स्तंभों पर आधारित सपाट वाला छत ३.७४ व् १.६८ के परिणाम के आयताकार वास्तु है | यह पश्चिम तथा पूर्व दिशा में खुला हुवा तथा शेष दोनों ओर चार सीढियाँ व एक एक सोपान बना हुवा है
मंदिर के अन्त भाग _
गर्भ गृह _ गर्भ गृह के मूल देवता की मूर्ति प्रतिष्ठा पित है | यह प्रतिमा काले पत्थर की बनी विष्णु की चतुर्भुजी मूर्ति है जिसके हांथों में क्रमशह शंख, चक्र,गदा और पद्म है | भगवान राजीव लोचन के नाम से इस मूर्ति की पूजा होती है |
अन्तराल _अन्तराल, गर्भगृह और महामंड़प के मध्य में बनाया जाने वाला वास्तु रूप है | वर्तमान में यह १.९३ मीटर के व्यास में वर्णाकार वास्तुरूप है | अन्तराल और महामंड़प को संबंद्ध करने के लिए एक प्रवेशद्वार के प्रथम शाखा पर कल्पलता का चारू चित्रण है | द्वितीय शाखा पर विविध भाव भंगिमाओं,मुद्राओं चेष्टाओं में मिथुन की आकर्षक मूर्तियाँ है | तृतीय शाखा अर्धमानषी रूप नाग नागिनों के युगनद्ध बांध से भरा हुवा है | जो सिरदल पर्यंत भाग को व्यास किया हुवा है | ललाट विम्ब पर गरुडासीन विष्णु की चतुर्भुजी प्रतिमा है | ये अपने हांथों में शंख,चक्र,गदा और पद्म धारण किये हुवे हैं | गरुड़ की मूर्ति के अंकन में अप्रतिम शक्ति और शौर्य की भावों की मंजुल अभिव्यक्ति है |
बाह्य प्रकोष्ठ _ बही प्रकोष्ठ के दोनों पाश्वों की भित्तियों की भित्ति स्तंभी सम्मुख भाग मानवाकार नायिका मूर्ति यद्यप रूप,गदन,और आंगिक विन्यास का पूर्ण अभिव्यक्ति है _ यह सौन्दर्य के रसात्मक तथ्यों के आभाव में अपूर्ण है | प्रथम दर्शन में यह मृन्धा,नायिका की मूर्ति प्रतीत होती है | त्रिभंग मुद्रा में नायिका का दक्षिण हस्त ऊपर की ओर इस प्रकार से उठा है मनो वे अंगड़ाई ले रही हों अथवा पीछे के जुड़े के शिथिल बंध को सहेज रही हो | वामहस्त दक्षिण स्तन के पास हैं स्तन स्पर्श मातृत्व का प्रतिक है यह मन और वाक को संपोषित करने वाली यही यही माता है | इसमें रसात्मक अनुभूति को प्रकट करने के लिए व्यापक भूम हैं तथा अन्तर्निहित श्रीष्ठी के गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन करने का दिशा निर्देश है | इसके विपरीत दक्षिण तरफ से भित्ति पर पूर्ण उभर में बनाई गयी नायिका मूर्ति की केश सज्जा, शिरोभूषण विधि अलंकारों कलात्मक अभिव्यक्ति सुकोमल अंग्यष्टि त्रिभंग मुद्रा प्रत्यांचाकर भू _ विलाष भावभंगिमा निर्देश के लिए प्रयुक्त विशिष्ठ मुद्रा _ अप्रतिम सौन्दर्य को रुपन्तिरित करने वाले रूप का मंडप सुक्षमांकन वस्त्रलान्करण का चारू चित्रण आदि के द्वारा एक सर्वागपूर्ण कलात्मक कृति है |
शिखर _ ब्रम्ह सूत्रीय व्यवस्था में राजीव लोचन मंदिर का अत्यंत ही महत्वपूर्ण अंग उसके विमान का शिखर है “शिख” पर मीडिय (शुन्डाकार) आकर का है, तथा यह पांच भूमियों में विभक्त है |
कुलेश्वर ( उत्पलेश्वर) मंदिर
त्रिवेणी संगम की भांति राजिम में तीन नदियों का स्वर्णिम संगम है सौंदु पैरी और महानदी जसी पवित्र नदियों का संगम स्थल जहाँ है वहीँ पर कुलेश्वर मंदिर का निर्माण हुवा है | इसका मूल नाम उत्पलेश्वर है, परन्तु कुलेश्वर मंदिर के नाम से जाना जाता है | जनश्रुति है की राम सीता एवं लक्ष्मण ने बनवास जाते समय यहाँ विश्राम किया था | कितने दिन एवं समय के लिए उन्होंने अपना निवासस्थान बनाया यह तो ज्ञात नहीं है परन्तु किवदंती है की माता सीता ने अपने हांथों से बालू की शिव मूर्ति (शिवलिंग) निर्मित कर अपने अपने आराध्यदेव की पूजा की थी | यहीं से इसकी निर्माण श्रृंखला का प्रारूप तैयार होता है | अथ लोगों ने इसे उत्पलेश्वर कह कर लोगों ने अनुभूति प्रदान की है | त्रिवेणी उपर्युक्त आधार पर कहा जा सकता है की इस मंदिर का निर्माण श्रृंखला एवं महत्त्व का प्रारंभ त्रेता युग से हुवा था | यहाँ खरदूषण का राज्य था | उस समय छ महीने दिन _ रात हुवा करता था देवताओं का इस पृथ्वी पर निवास था | लोमश ऋषि का आश्रम इसका उदहारण है | यह पृथ्वी स्वर्ग का एक भाग था | अतः राजिम की कीर्ति का अनुमान इसीसे लगाया जा सकता है |
पुरातत्ववेत्ता बेलगार ने इसे ८ – ९ वी शताब्दी का निर्मित माना है | राजीव लोचन के अनुसार यह सामंत जगतपाल के द्वारा प्रतिष्ठित माना जाता है |
मंदिर का सम्पूर्ण भाग चारों से बंधा हुवा है | बरसात में नदी की बाद से उसकी रक्षा के लिए मंदिर की चबूतरा को अष्ट भुजाकार में बनाया गया है | यह चबूतरा ऊपर की ओर क्रमशह सकरी होती गयी है | जितनी ऊंचाई पर मंदिर है, उतना ही नहीं बल्कि उससे भी अधिक मंदिर के निचे नीव भाग पत्थरों से घिरा हुवा है | यह वास्तुशास्त्री तकनिकी ज्ञान की प्रौढ़ता की परिचायक है | चबूतरा को विशेष ऊँचा बानना स्वाभाविक था | इस मंदिर की प्राकृतिक स्थिति ध्यान में रखते हुवे स्पपतियों ने नदी की प्रलयकारी बाढ़ के आधार से मंदिर की रक्षा के लिए जगत के निर्माण में जिस बुद्धि कौशल का परिचय दिया है | यह उनकी तकनिकी ज्ञान की जिवंत प्रमाण है | चबूतरा सत्रह फुट ऊँचा है इसके निर्माण में अपेक्षाकृत बहुत छोटे छोटे आकर के प्रस्तर रुडों का प्रयोग किया गया है | सन १९६७ में राजिम में बाद आई थी, तब इस मंदिर का प्रायः सम्पूर्ण भाग डूब चूका था | केवल कलश भाग दिखाई देता था पानी की तीव्र बहाव को देखकर ऐसा प्रतीत होता था की जलधारा जितनी तेजी से अन्दर को जाकर चबूतरे से टकराकर वह निचे से ऊपर गिरती उठती इससे इसकी नीव की मजबूती का अनुमान लगाया जा सकता है |
इस मंदिर में स्वयंभू शंकर की पंचमुखी लिंग है जलहरी से हमेशा भुगार्भित जल से लिंग डूबा हुवा रहता है सुबह जलहरी में पानी लबालब रहता है सायंकाल होते तक पानी का भराव कम हो जाता है | जनश्रुति के आधार पर इस मंदिर के अन्तः भाग में एक सुरंग है जो लोमश ऋषि के आश्रम से अनुबंधित है, तो दूसरी ओर सोमेश्वर महादेव की मंदिर से जुडी हुई है | ऐसा प्रतीत होता है की मलेच्छों से मंदिर रक्षा करने के लिए उद्यम किया गया था |
कुलेश्वर से सौ गज की दुरी पर दक्षिण की ओर लोमश ऋषि आश्रम है | यह विभिन्न वृक्षों की कुंज है और आश्रम के लिए सभी सुविधाएँ उपलब्ध है | तीनों नदियों के मध्य घिरा हुवा है | बेल के फलों में कायाकल्प करने की असीमित शक्ति होती है | ऋषि मुनि इस फल से ही अपनी उदर पूर्ति करते थे | वृक्षों में पके बेल या फल को यदि कपडे में बंध दिया जाये तो तो वह दुसरे वर्ष पुनर्जन्म लेकर पका फल कच्चा होकर पुनः पकता है अतः लोमश ऋषि इस फल को खाने से ज्यादा समय तक जीवित रहे एवं यौवन के बसंत का उपयोग अधिक समय तक कर सके
अनुश्रुति है की ब्रम्हा के मानस पुत्र लोमश ऋषि का यह आश्रम था \ किसी समय वह तपस्या और ज्ञान का ज्योति स्थल था वैदिक काल के ऋषियों में लोमश ऋषि का महत्वपूर्ण स्थान है |
भूतेश्वर महादेव मंदिर
यह मंदिर नदी के तट पर अवस्थित है | ऊँची चबूतरा पर स्थापित है \ चबूतरा की ऊंचाई और उनके संस्थापन की सुदृढ़ता स्थपतियों की तकनिकी सुक्ष का परिणाम है | विमान नागर प्रकार का है तथा कल्चुरिकलिन मंदिर वास्तु की परंपरा में बनाया गया है यह मंदिर चौदहवीं शताब्दी के लगभग का है
राजीव लोचन मंदिर के प्रकार उत्तरी के पश्चिमों कोनो पर बने नृसिंह मंदिर के उत्तरी बाजु से प्रकार के बाहर मंदिर स्थित है | प्राप्त शिलालेख में इस मंदिर के निर्माण का स्पष्ट उल्लेख है | यह चौदहवीं शताब्दी की निर्मित है |
यह मंदिर राजेश्वर तथा दानेश्वर मंदिर के पीछे स्थित है | वर्त्तमान में मंदिर का विमान ही प्राचीन निर्मित मंदिरों का प्रतिनिधि है \ यह पूर्वाभिमुख है \ शिखर नागर शैली का है \ यह कल्चुरिकलिन निर्मित मंदिर है |
यह मंदिर राजिम की वर्तमान बस्ती की उत्तर में थोड़ी दूर पर नदी के तट से थोडा हटकर स्थित है | स्थापत्य की दृष्टि से यह अल्प महत्वपूर्ण है | यह एक प्राचीन मंदिर का अवशेष है इस मंदिर के महामंड़प के स्तम्भ प्राचीन है | सम्प्रति इसमें एक गुफा है जिसमे शेषनाग की एक अत्यंत प्राचीन मूर्ति है |
_ कुलेश्वर मंदिर के पुजारी ने बताया राजिम क्षेत्र की सभी मंदिरें प्राचीन है | यहाँ क्षत्रिय पुजारी होने का कारण पूछने पर बताया महान प्रतापी राजा रत्नाकर जो की क्षत्रिय कुल से थे ने इन मंदिरों का निर्माण कराया और उनकी रक्षा भी किया जीके कारण यहाँ प्रारंभ से ही रित चली आई है यहाँ क्षत्रिय पूजा करते आ रहे हैं
चंद्रभान सिंह _ पुजारी
_वरिष्ठ पुरातत्ववेत्ता डा.विष्णु सिंह ठाकुर ने राजीव लोचन मंदिर की इतिहास पांचवी सदी की मानते हुवे इसे क्षेत्र को प्रयाग का दर्जा देते हुवे कहते है यहाँ अस्थि विसर्जन करने से मृतात्मा को जो शांति इलाहाबाद में मिलती है वाही यहाँ भी उतना ही महत्व है जितना प्रयाग का उन्होंने सरकार द्वारा विगत पॉँच सालों से आयोजित कुम्भ मेले के आयोजन को धर्मनुरूप नहीं मानते:- डा.विष्णु सिंह ठाकुर वरिष्ठ पुरातत्ववेत्ता
राजीव लोचन क्षेत्र का वर्तमान इतिहास
सन उन्नीस सौ अट्ठारह के पूर्व राजीव लोचन मंदिर में क्षेत्रीय पुजारियों का स्वामित्व था | परन्तु मंदिर में अव्यवस्था के कारण छुरा नरेश लाल नागेन्द्र शाह तथा मालगुजार रामरतन तिवारी सेमरा वाले एवं अन्य व्यक्तियों ने न्यायलय में मंदिर का स्वामित्व सार्वजानिक ट्रस्ट को दिए जाने के लिए पहल की ज्युडिशियल कमिश्नर नागपुर (हाई कोर्ट ) ने आदेश जरी कर इसे सार्वजनिक ट्रस्ट के रूप में रखने का निर्णय दिया | न्यायधीश ने पुजारियों को वंश क्रमानुगत पूजा सम्बन्धी कार्य करने का आदेश दिया | अभी वर्त्तमान में वहां के ट्रस्टी दूधाधारी मठ के मठाधीश डा.रामसुंदर दास हैं
राज्य सरकार ने विगत पॉँच सालों से वहां माघ पूर्णिमा को कुम्भ मेले का भी आयोजन करते आ रहा है जो पंद्रह दिनों तक चलती है साथ ही अब राजीव लोचन मंदिर केन्द्रीय पुरातत्व विभाग की देख रेख में है कुलेश्वर महादेव की मंदिर राज्य पुरातत्व विभाग की देख रेख में होने के कारण मंदिर की यथास्थिति बनी हुई है |
_ राजीव लोचन की दर्शन को पहुंचे पर्यटकों ने इस पूरी मंदिर को विरला करार देते हुवे इसकी तारीफ किये | वहीँ श्रद्धालुओं ने बताया यहाँ आने के बाद शांति के अलावा मनोवांछित फल भी मिलता है |